राजा और राजधर्म

राजगद्दी पर बैठकर राजधर्म को निभाना सरकार का धर्म होता है। बिना राजधर्म निभाये राजगद्दी पर बैठने वाला रंगे सियार की तरह होता है और समय आने पर जनता विद्रोह करके उसे गद्दी से नीचे उतार देती है।लोकतंत्र में राजनेता ही राजा का स्वरूप होता है और उसकी कैबिनेट के साथ मंत्री राजकाज में सहयोगी होते हैं। राजा की कैबिनेट भी उसी के आचरण के अनुकूल कार्य करती है।जबकि मंत्री एवं सहयोगियों का धर्म होता है कि वह अपने अगुवा कलियुगी राजा को राजधर्म के अनुसार कार्य करने की प्रेरणा दे और जनहित विरोधी कार्यों को करने से राजा को रोके।

कहा भी गया है कि – ” सचिव वैद्य गुरु तीन जौ, भय बोलै प्रिय आश। राजधर्म तन तीन कै, होय बेगिहै नाश “।। इसीलिए कहा गया है कि इन तीनों को हमेशा स्पष्ट निर्णय देना जरूरी होता है नहीं तो देश की स्थिति-” अंधेर नगरी चौपट राजा, टेक सेर भाजी टेक सेर खाझा ” जैसी हो जाती है।इस समय लोकतंत्र में इसके विपरीत कार्य हो रहा है यहाँ पर अगर नेता दिन को रात कहता है तो वह चाहता है कि साथी भी उसे प्रामाणिक करें और हाँ में हाँ मिलाएँ जो ऐसा नहीं करता है उसे मंत्रिमंडल से निकालकर बागी करार दे दिया जाता है।

कलियुगी राजपरिवार जनता का नहीं बल्कि अपना व अपनों का उद्धार करने में जुटा है।कभी चारा घोटाला तो कभी बोफोर्स घोटाला तो कभी कोयला घोटाला कभी शराब आदि घोटाला होता रहता है। कोई खनन कराकर कोई कमीशन लेकर तो कोई रिश्वत लेकर जनता को नहीं बल्कि अपने को मालामाल करने में जुटा है।इस समय राजनेता जनता के लिये नहीं बल्कि अपनी तिजोरी भरने में जुटा है।नोटबंदी के दौरान जनता चालीस पचास हजार के लिए परेशान थी किन्तु नेता अधिकारी ठेकेदार हरामखोर लाखों करोड़ों रूपए रातोरात बिना लाइन लगाये बदल गये।राजशाही में राजा का बड़ा पुत्र राजा होता था लेकिन लोकतंत्र में उसका स्वरूप बदल गया है।

जनता का सबसे ज्यादा मत व समर्थन पाने वाला दल का नेता ही राजसिंहासन पर बैठकर अपनी नीति से सरकार चलाता है।राजशाही में राजा चोर बेइमानी भ्रष्ट नहीं होता था और अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर जनहित को प्राथमिकता देता था।भगवान राम ने तो अपनी एक जनता की टिप्पणी करने पर अपनी धर्मपत्नी माता सीता का त्याग कर दिया था जबकि वह जानते थे कि टिप्पणी में कोई सच्चाई नहीं है फिर भी उन्होंने राजधर्म निभाया।भगवान श्रीकृष्ण ने अपने ही सामने अपने वंशजो को समाप्त कर दिया था क्योंकि वे सभी पथभ्रष्ट होकर जनता को तकलीफ दे रहे थे।कहा गया है कि-“जासु राज प्रजा दुखियारी सो नृप अवश्य नरक अधिकारी”।

लोकतंत्र में राजनीति कूटनीति के सहारे होती है जो नीतियों का निर्धारण करती है। राजकाज का संचालक राजा की नीति व नियत के आधार पर होता है अगर उसकी नियत अच्छी होती है तो उसकी नीति भी अच्छी होती है।कूटनीति देश के बाहर देश और देशवासियों के हित की जाती है किन्तु वर्तमान समय में राजनीति ही कूटनीति से चलने लगी है। आजकल राजनीति धार्मिक साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़का कर हो रही है और उसी की आड़ राजनैतिक पिपासा तृप्त की जा रही है। राजनैतिक महत्वाकांक्षा देश को खंडित करने पर उतारू है जिससे देश की एकता अखंडता पर विपरीत असर पड़ रहा है जो लोकतंत्र के उज्ज्वल भविष्य के हित में कतई उचित नहीं कहा जा सकता है।

भोलानाथ मिश्र
वरिष्ठ पत्रकार/समाजसेवी